खुद की कल्पना करो
कल्पना के साम्राज्य में बहुत कुछ समाहित है। जीवन के एक एक छन कल्पना से घिरा हुआ है। जैसा सोचते है वैसा करते है। सोच कल्पना ही रूप है। कल्पना तो करना ही चाइये। प्रगति का रास्ता तो कल्पना से ही खुलता है। जब तक कल्पना नहीं करेंगे मन में उस चीज के लिए भावना नहीं उठेगी। सांसारिक कल्पना के साथ साथ खुद की भी कल्पना करना चाइये। इसके बगैर ज्ञान अधुरा भी रह सकता है। सांसारिक कल्पना में सकारात्मक और नकारात्मक कल्पना दोनों ही होते है। कुछ इच्छा पूर्ण होते है। कुछ इच्छा बाकी रह जाते है। यद्यपि कल्पना के अनुरूप कार्य भी करते है। सांसारिक कल्पना संतुलित है या असंतुलित इसका ज्ञान स्वयं के बारे में कल्पना करने से ही पता चलेगा। नहीं तो कल्पना कल्पनातीत भी हो सकता है। फिर वो इच्छा कभी भी पूरा नहीं हो पायेगा। जैसे संतुलन घर में, बहार, समाज में, लोगो के बिच, काम धंधा में बना के रखते है। वैसे ही कल्पना को भी संतुलित बनाकर रखना चाहिए। स्वयं के बारे में कल्पन करने से एक एक चीज के बारे में ज्ञान होगा। पता चलेगा की कहाँ पर क्या गलती हो रहा है। क्या सही चल रहा है। किस ओर सक्रीय होना चाहिए। जो गलत हो रहा है। कौन से कार्य गतिविधि को बंद कारना होगा। ये चीजें का एहसास खुद के बारे में कल्पना करने से ही होगा। जीवन में संतुलन बनाये रखने के साथ साथ अपने कल्पना को भी संतुलित रखना चाहिये।
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