Saturday, December 25, 2021

मानव ज्ञान के वर्गीकरण मानव के लिए विषयो का ज्ञान आवश्यक है जब तक विषय का सही ज्ञान नहीं होगा तब तक विषय वस्तु पूरी तरह से समझ नहीं आएगा

मानव ज्ञान के विषय और विषयों में वर्गीकरण के दृष्टिकोण की आवश्यकता है


मानव ज्ञान के वर्गीकरण के लिए विषयो का ज्ञान आवश्यक है. 

जब तक विषय का सही ज्ञान नहीं होगा तब तक विषय वस्तु पूरी तरह से समझ नहीं आएगा. स्कूल में पढाई लिखाई में कुछ विषय होते है जिसमे शब्द, भाषा और प्रकार समझ में आता है. गणित जोड़ना, घटाना, गुना और भाग सिखाता है. भाषा क्षेत्रीय, राजकीय और देशीय भाषा का ज्ञान कराता है. जो अपने राज्य के भाषा देश का भाषा और सार्वभौमिक अन्तररास्ट्रीय भाषा सिखाता है. इतिहास पौराणिक, मध्य यूग, और वर्तमान के विषय वस्तु की जानकारी कराता है. भूगोल खगोलीय, देश, प्रदेश, विदेश के जलबायु संरचन का ज्ञान करता है. देश और स्थान के अनुसार जलवायु परिवर्तन और मौसन शर्दी, गर्मी और बरसात के मौसम के बारे में जानकारी कराता है. भूमिति संरचन के आकर, प्रकार के मापने के पद्धति और बनाने और गणना करने का तरीका सिखाता है. सबसे जटिल विषय विज्ञान जिसके तीन भाग होते है. जीव बिज्ञान जीवन के संरचन के बारे में बताता है. प्राणी, पशु, पक्षी, किट, पतंग, जीवाणु और विषाणु इत्यादि के शारीरिक बनावट तत्व की जानकारी, स्वभाव, प्रकृति, संरचन की जानकारी देता है. इसे प्राणी विज्ञान भी कहते है. रसायन विज्ञान में तत्व की जानकारी, पदार्थ की जानकारी, ठोस और तरज पदार्थ की जानकारी, तत्व और पदार्थ के गुणधर्म, प्रकृति इत्यादि की जानकारी मिलता है. भौतिक विज्ञान मशीनरी के बनाने और उसके वास्तु के गुणधर्म प्रकृति आकर प्रकार के गणना की पद्धति सिखाता है.

 

मानव ज्ञान में वर्गीकरण के अलावा भी बहूत से क्षेत्र है

मानव ज्ञान में वर्गीकरण जो महाविद्यला में अर्थशास्त्र, पुस्तपालन विज्ञान के तकनिकी अध्ययन, वाणिज्य. ऐसे बहूत से विषय है जो आर्ट्स कॉमर्स, और साइंस के पढाई के लिए वर्गीकृत किये गए है.


मानव ज्ञान में ज्ञान के वर्गीकरण से ज्ञान का आयाम बढ़ता है. 

ज्ञान के वर्गीकरण में अपने क्षेत्रे के अनुसार क्या ज्ञान आवश्यक है. उसको एक संग्रह कर के विषयों का अध्यन कर के अपने क्षेत्र में बढ़ा जाता है. सबसे पहले खुद के मन में झक के ये निर्णय लिया जाता है की मन किस विषय के लिए उपयुक्त है. उसके अनुसार से विषय का चयन किया जाता है. एक मुस्ट विषय को संग्रह कर के अध्यन कर के स्नातक या डिप्लोमा कर के अपने कार्य व्यवस्था को बनाकर कमाई का माध्यम बनाकर व्यापर या सेवा में कार्य किया जाता है. तभी सफलता मिलने के लिए विषयों में वर्गीकरण के दृष्टिकोण की आवश्यकता होता है.



उत्साह स्वावलंबन से ऊपर होने पर होता है.

जीवन के विचारधारा में कर्म का उत्साह

 

उत्साह जीवन के लिए जितना अहेमियत रखता है उतना ही कर्म पर प्रभाव डालता है.

कर्म जीवन का वो इकाई है जिसे स्वाबलंबन के मात्र को माप सकते है. कर्म में खुद के लिए कुछ नहीं होता है. कर्म दूसरो के भलाई और उपकार के लिए ही आका जाता है. मनुष्यता तब तक वो पूर्ण नहीं जब तक की वो निस्वार्थ भाव से कोई कर्म न करे. यदि ऐसा भावना जीवन में नहीं आ रहा है तो कही न कही और कोई न कोई बहूत बड़ी कमी है जो या तो पता नहीं चल रहा है या ठीक से उजागर नहीं हो रहा है. स्वयम के लिए सोचते और करते तो सब है पर कभी दूसरो के लिए भी करे तो वास्तविक जीवन का एहसास होता है. सब जानते है और सब करते है तो भी ये कभी समझ नहीं आता है की वास्तविक जीवन क्या है? अपने लिए जीना तो है ही, वो तो सबसे बड़ा कर्म है. जब तक मनुष्य खुद के लिए नहीं करेगा तब तक दूसरो के लिए कैसे कर सकता है. ज्ञान का पहला प्रयोग तो खुद पर ही होता है तब उससे जो उपार्जन होता है तो घर परिवार रिश्ते नाते और जान पहचान तक जाता है भले थोडा सा ही अंश क्यों नहीं हो. स्वयम में सक्षम होने के बाद ही मनुष्य दूसरो के लिए कुछ कर पाता है वही उत्साह का कारन होता है.

 

उत्साह स्वावलंबन से ऊपर होने पर होता है.

जिसमे मनुष्य जीवन के हर पहलू का अध्यन करने के बाद जब पारंगत होता है तो ज्ञान का प्रभाव दूसरो पर भी पड़ता है उसके बातो से या उसके कार्यो से जो लोग उसे समझने लगते है और उसे पढने का प्रयास भी करते है. सच्चा ज्ञान कही छुपा नहीं रहता है कही न कही से किसी न किसी रूप में उजागर होता ही रहता है ये वास्तविक ज्ञान की परिभासा है. चीजे जब अच्छी हो तो हर कोई पसंद करता है और उसका गुणगान करता है. ज्ञान से निकले सकारात्मक भाव जिसमे सब के लिए कुछ न कुछ समाहित होता है तो वो प्रेरणा देता है. जब किसी के लिए कुछ करते है तो वो देय के भावना से उजागर होना चाहिए न की स्वार्थ के भावना से नहीं तो वो कर्म के दायरे में आएगा ही नहीं और स्वाबलंबन दूर होता चल जायेगा. जहा स्वयम के लिए कुछ भी नहीं होते हुए जब दूसरो के भलाई और उत्थान के उद्देश्य से कुछ होता है तो मन को वास्तविक शांति मिलती है.

 

जीवन को आजमाने के लिए स्वयं को परख सकते है.

कोई अंजान ब्यक्ति यदि भूखा है यदि कह रहा है की "मै बुखा हूँ मुझे भोजन चाहिए" यदि मन में उपकार की भावना है तो जरूर उसे भोजन करा देंगे. यदि ये सोचेंगे की इसे भोजन करा के मुझे क्या मिलेगा तो वो उपकार करना या नहीं करना दोनों एक जैसा ही हो जायेगा भले उसको इस भावना से भोजन करा भी दिए तो ऐसा भावना लाना स्वयम के स्तर से और निचे गिरना होगा. यदि बगैर सोचे समझे यदि मन कह रहा है की इसे भोजन करा दे और स्वच्छ मन से प्रेम से उनको भोजन करा देते है तो बाद में उस भावना से अपने मन को टटोल कर देखे, उस भावाना से कही न कही किसी न किसी कोने कोई ख़ुशी जरूरछुपी दिखेगी. उस ख़ुशी में झांक कर देखिये वो वास्तविक ख़ुशी से बहूत ऊपर होगा. उस भाव में ख़ुशी के साथ एक उत्साह भी होगा. ऐसे उत्साह निस्वार्थ भाव के कर्म से ही मिलते है देश काल और पत्र के अनुसार जब सब संतुलित होता है तो जीवन में अतुलित ख़ुशी मिलता है. जीवन के ख़ुशी में संतुलन भोग विलाश से ज्यादा देय के भावना से होता है.     

खुशी और वास्तविक ख़ुशी में बहूत अंतर होता है.     

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